स्त्री का संघर्ष और सृजन
सृजनात्मकता स्त्री का आधारभूत गुण हैं, इसलिए ही विधाता ने स्त्री की रचना की है। स्त्री की ममता और उसकी सहनशक्ति की बातें सभी करते हैं परन्तु इसके साथ - साथ उसकी सृजन शक्ति पर बहुत ही कम लोगों का ध्यान गया है। कहीं ना कहीं पौरुष आहत होता है ना, क्यूंकि ये विशेष शक्ति तो बस स्त्री के पास ही हैं।
Image Courtesy – Ms. Lilly Thakur
बात उन दिनों की है,जब मैं बनारस के एक बोर्डिंग स्कूल में पढ़ा करतीं थीं। तब मैं ११वीं कक्षा में थी और शिवानी दीदी १२वीं में। होली की छुट्टियाँ हो गयी थीं। छुट्टियों के खत्म होते ही बोर्ड की परीक्षाएँ होनी थीं। हम सभी परीक्षाओं के दवाब में अपनी पुस्तकों के साथ ही रहने को कटिबद्ध थे, छात्रावास में रहने का एक विशेष फायदा मुझे ये नज़र आया, कि मन हो या ना हो पर पढ़ना ही पड़ता है क्यूंकि सभी पढ़ रहे हैं, मज़े करने के लिए भी एक मित्र, तो कम से कम चाहिये, मज़बूरी में भी शौक पनप जाते हैं, मैं भी अपनी किताबों में डूबी हुयी थी कि तभी कहीं से छन्न-छन्न की आवाज़ आयी।
उन दिनों फ़ोन - मोबाइल नहीं हुआ करते थे और ना ही टीवी में दूरदर्शन के अलावा कोई और मनोरंजन की गुंजाइश थी, ऐसे में हमारा मुख्य मनोरंजन मैच हुआ करता था। टीवी पर क्रिकेट मैच या फिर अपने स्कूल का लाइव मैच, तीसरा मुख्य मनोरंजन था, किसी के घर से उसकी माँ मिलने आतीं, तो अपने सब काम छोड़कर हम सब जमा हो जाते थे जैसे अपनी माँ आयी हैं, इसके बदले में कुछ चॉकलेट्स या मिठाईयां भी खाने को मिल जाया करतीं थीं। बस यही अंदेशा करते हुए जब नज़रें उठायीं तो मेरा दिल धक्क से रह गया। यह क्या? ये तो शिवानी दीदी हैं 'शादी के जोड़े में ', हाथों में मेहंदी और चूड़ियाँ, माथे में सिंदूर और पैरों में महावर लगी हुयी थी।
कल से बोर्ड परीक्षाएं हैं दीदी, आप कैसे लिखोगे ? आपकी चूड़ियाँ बजती रहेंगी ,ये क्या किया आपने? ऐसे कौन शादी करता हैं? मगर १० सवालों के जवाब में उन्होंने मुस्कुराकर एक ही जवाब दिया ,कि मेरे पापा ने, मेरी दादी की ख़ुशी के लिए मेरी शादी कर दी है। यह मेरे लिए बड़ा ही आश्चर्यजनक था। बिना किसी विरोध के १७ वर्ष की छोटी वयस में उन्होंने विवाह कर लिया, सचमुच वो बालिका वधु लग रही थीं। बहुत ही भोली-भाली सी बालिका वधु।
जब तीन दशकों के बाद उनसे मिलने और बात करने का मौका मिला तो मैं ख़ुशी से पागल हो उठी। आज भी मानो वही सत्रहवर्षीय बालिका वधु हों, वही चंचलता, वही खिलखिलाहट। मानो अतीत का एक पन्ना बिना धूल -धूसरित हुए ताज़ा- ताज़ा फड़फड़ा उठा हो। कैसी हो दीदी? जीजाजी कैसे हैं? २ मिनट के मौन के बाद उन्होंने कहा कि वो अब दुनिया में नहीं हैं, सुनकर स्तब्ध रह गयी मैं? सहसा कानों पर विश्वास नहीं हुआ? क्या ऐसा भी हो सकता है, बालपन में विवाह और यौवन में वियोग का दुःख, उन्होंने यह सब कैसे सहा होगा? मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि उनसे क्या कहूं और कैसे कहूं ?
फिर खुद को सँभालते हुए मैंने उनसे पूछा कि आप ठीक हो? आपने खुद को कैसे संभाला? उनकी सशक्त वाणी अब भी मेरे कानो में गूंज रही है। उन्होंने कहा था कि - ' माँ ' एक माँ भी तो थीं मैं, मुझे अपने दुःख को प्रकट करने का अधिकार कहाँ था? मैंने खुद में उनको ढूंढ लिया, अपने पति की किताबों को पढ़ने लगी और अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी कर के, आज उनके ही कॉलेज में व्याख्याता के पद पर आसीन हूँ।
वाह! बहुत सुन्दर! कोई प्रेम निभाए तो ऐसे। शायद इसलिए विधाता ने उन्हें छोटी उमर में पति का साथ दिया था, क्यूंकि उन्हें बाद में यौवन में विरह देखना था। मैं उनसे और भी प्रभावित हो रही थी। क्या यह सब आसान था शिवानी दीदी, मेरे मन में बहुत सवाल घूम रहे थे, जिन्हे उन्होंने भाँप कर स्वयं ही उत्तर दिया - ' एक माँ अपने संतान का सृजन कर सकती है तो वह स्वयं का सृजन क्यों नहीं कर सकती ? 'बस यही बातें मेरे मन में आती रहीं और मेरी शक्ति बढाती रहीं और तभी मैं आज एक सफल जीवन जी रही हूँ ।
सच ,पहले उन्हें प्यार करती थी और अब सम्मान करती हूँ, उन्हें और उनके समान सभी नारियों को जो शक्ति , स्नेह व सृजनात्मकता की अद्भुत मिसाल हैं, ऐसी सभी नारियों को मेरा शत-शत नमन।
लेखिका- सुश्री आर्या झा
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